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सोमवार, 17 अगस्त 2020

स्वतंत्रता दिवस पर हुआ ट्राई सिटी चंडीगढ़ में महिला काव्य मंच का आयोजन

 पुरुष हो कर भी नारी कलमकारों को एकजुट करने में लगे हैं नरेश नाज़ 
चंडीगढ़: 16 अगस्त 2020: (पुष्पिंदर कौर//पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)
स्वतंत्रता दिवस के सुअवसर पर यह सारा आयोजन यूं तो पंजाबी में था लेकिन हिंदी भाषी कविता का भी गर्मजोशी से स्वागत हुआ। नामी ग्रामी सक्रिय शायरा ऐमी ह्रदय अर्थात अमरजीत कौर हिरदे के प्रयासों और नरेश नाज़ साहिब के आशीर्वाद से ही यह सब सम्भव हो सका। आरम्भ किया ऐमी हृदय ने अपनी इन पंक्तियों से जिनमें उन सपनों का ज़िक्र है जिन सपनों में उसकी चाहत का हिन्दोस्तान है---
ख्वाबां दा तू दे दे मेरा हिंदुस्तान,
भाईचारक जागीर बनाना चाहनी आं।
तिन रंग मेरे मन विच जिहड़े दमक रहे ,
आज़ादी तस्वीर बनाना चाहनी आं।
"महिला काव्य मंच मोहाली" इकाई के अध्यक्ष अमरजीत कौर हृदय जी के इस शेयर ने सभी कवित्रीयों के ममतामई  मन के ख्वाबों  के भावों के समुद्र को एक घड़े में समेट दिया। यह सारा आयोजन सम्भव हो सका नरेश नाज़ के कारण क्यूंकि वह देश  के साथ साथ दुनिया भर की कवियत्रिओं को भर एक मंच पर लाने के प्रयासों में लगे हैं।
वास्तव में महिला काव्य मंच संस्था के  संस्थापक श्री नरेश नाज़ जी हैं। महिला काव्य मंच की स्थापना, जिस उद्देश्य को लेकर की गई है, वह नारी भाव कवि मन द्वारा बुने गए ख्वाबों के हिंदुस्तान के साथ अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में अग्रसर हुआ है।अपने कवि मन के भावों, एहसासों, जज्बातों और  उदगारों  को 'मन से मंच तक' लेकर आने के उद्देश्य से ही महिलाओं को यह मंच प्रदान किया है। जिसके अंतर्गत पूरे देश भर की कवित्रीयों को अपने कवि मन से उठे भावों को प्रकट करने के लिए इकाईयां बनाकर इस तरह के कवित्री सम्मेलन आयोजित किए जाते रहे हैं और किये जाते रहेंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता श्रीमती शारदा मित्तल जी ने की जो महिला काव्य मंच की चंडीगढ़ ट्राई सिटी की अध्यक्ष हैं।   
उन्होंने अपने अध्यक्षीय  भाषण में भारत के गौरवमई इतिहास और सभ्यता के बारे में बताते हुए कहा कि शहीदों ने अपना बलिदान देकर इस धरती की रक्षा की है और हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने सभ्याचार और संस्कारों को संभालना पड़ेगा। तभी ख्वाबों के हिंदुस्तान की बुनियाद रखी जा सकेगी। उन्होंने कहा कि कवियों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत के सकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला है। अपना आशीर्वाद देते हुए, उन्होंने उपस्थित कवियों को इस तरीके से रचना जारी रखने और भारत की प्रगति और विकास के माध्यम से प्रेरित किया।
महिला काव्य मंच की मोहाली इकाई अध्यक्ष अमरजीत कौर हृदय ने अपनी योग्य प्रबंधन के साथ 15 अगस्त 2020  को 'मेरे ख्वाबों का हिंदुस्तान' शीर्षक मिसरे के लिए  विषय पर महिला काव्य सम्मेलन करवाया गया। इस कवियत्री सम्मेलन का सफल आयोजन किया।  मोहाली इकाई की तरफ से  इसमें सभी कवित्रीयों ने सचमुच ही अपने ख्वाबों के हिंदुस्तान को अपनी लेखनी के द्वारा चित्रित कर दिया। देश को स्वर्ग व परी देश जैसा, जिसमें कोई व्यक्ति भूखा, बिना घर के , नीच, पीड़ित, दलित, कशमित, दीन-हीन, ग़रीब बेरोजगार, नशेबाज शराबी कोई नहीं।  जिस उद्देश्य से शहीदों ने अपना खून बहा कर आजादी को लिया था। अध्यक्ष अमरजीत कौर हृदय जी ने अपनी ग़ज़ल में शेयरों के द्वारा एक ऐसे हिंदुस्तान की तस्वीर बनाई जिसमें धर्म नस्ल और जातिवाद भेदभाव से ऊपर उठ कर सब की  प्रगति व भाई-चारे की एकता को हमेशा रखने पर जोर दिया। उन्होंने कवित्रीयों और मानयोग मेहमानों का धन्यवाद किया। 
चडीगढ़ ट्राई सिटी की उपाध्यक्ष सुश्री राशि श्री वास्तव भी मंच पर मौजूद रही उन्होंनेे  सैनिकों के बलिदान पर कविता प्रस्तुत की: 
 देश की आन पर आए तो, पीछे नहीं हम हटते हैं,
 शेरों की ललकार है ,अब यह मुंह की खाएंगे ,
हारें गे वह हर बाजी जब जिद पर हम आ जाएंगे।
 सुनीता गर्ग   अध्यक्ष,  ट्राई सिटी पंचकुला ,गरिमा,   उपाध्यक्ष,  ट्राई सिटी पंचकुला, संगीता कुंद्रा अध्यक्ष,  ट्राई सिटी,  सुदेश नूर  जी मंच पर मौजूद रही । इस कवि सम्मेलन का मंच संचालन डॉ रुपिंदर कौर जी ने सभी कवित्रीयों की कविताओं की समीक्षा करते हुए किया। 
कारोना काल के अंतर्गत प्रचलन हो रहे कवि सम्मेलन की तरह इस प्रोग्राम को "मोहब्बत रेडियो और उनके फेसबुक पेज पर लाइव हो कर 30 के करीब कवित्रीयों को अपनी कविता प्रसारित करने  का सफल प्रयास करवाया गया। "गगन रेडियो की तरफ से भी  सहयोग मिले। इसीलिए उन का तहेदिल से धन्यवाद। आने वाली मासिक मीटिंग में कवित्रीयों को रेडियो की तरफ से प्रशंसा पत्र भी भेंट किए जाएंगे। यह इस नए प्रयोग की भी इस संस्था की तरफ से एक और उपलब्धि है।
इस कवियत्री दरबार में ट्राइसिटी की देश विदेश के अलग-अलग शहरों में बसी 30 के आस-पास कवित्रीयों ने भाग लिया। मंच की परंपरा के अनुसार प्रोग्राम का आरंभ नीरू मित्तल के सरस्वती वंदना के गायन से किया गया।  
दविंदर ढिल्लो ने टप्पे गा के  हिंदुस्तान की मिट्टी को याद किया:      
तंद चरखे ते पाँवा,
 मिट्टी ए हिंद दिए तेैनूं,
चुम मत्थे नैव लावां।
रेणु अब्बी 'रेणू'  ने अपने ख्वाबों के हिंदुस्तान को इस तरह पेश किया
मेरे ख्वाबों का हिंदुस्तान हम सबसे  , 
बड़ी मुश्किल से मिली आज़ादी , 
रखना इसे हिफाज़त  से।
डेज़ी बेदी जुनेजा ने अपनी कविता के माध्यम से मातृभूमि के लिए अपना प्यार व्यक्त किया:
कोटि कोटि नमन मेरी मातृभूमि को
तीन रंगों में तिरंगा इसकी पहचान है
सबसे अच्छा, सिर्फ मेरा भारत
शैलजा पांडेय कुंद्रा ने अपने शब्दों में देश की स्वतंत्रता के लिए किए गए बलिदानों का वर्णन किया:
कुछ ने मृत्युदंड की बात कबूल की है
इसलिए मुझे हवा में स्वतंत्रता मिली
इस कवि सम्मेलन में नीना सैनी, सुनीत मदान, संगीता राय,  मंजू बिस्ला, संगीता कुंद्रा, मीनू सुखमणि, हरप्रीत कौर प्रीत, अनीता गरेजा, नीरजा शर्मा ,सोनिमा सतिया ,सीता श्याम, शीला गहलावत सीरत, गीता उपधयाय, रेणुका चुग मिढ्ढा, शैलजा पांडे, मोनिका कटारिया, , आभा मुकेश साहनी, संगीता गर्ग, सुधा जैन सुधीप, डेज़ी  मनोरमा श्रीवास्तव और प्रभजोत ने भी हिस्सा लिया। 

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

फिल्म के पांच यादगारी गीतों में इस गीत का जादू अनूठा ही था

मन की शक्ति का फलसफा भी याद दिलाती है फिल्म अनुराग 
फ़िल्मी दुनिया-फ़िल्मी यादें: 9 जनवरी 2020: (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)::
अपने ज़माने में हिंदी फ़िल्म "अनुराग" बहुत हिट हुई थी। सन 1972 के आखिरी महीने दिसंबर में रिलीज़ हुई इस फिल्म ने दर्शकों को चुंबक की तरह खींचा था। निर्माता निर्देशक थे शक्ति सामंत।  मौसमी चटर्जी की तो यह पहली फिल्म थी। राजेश खन्ना भी इसी फिल्म के एक छोटे से रोल में नज़र आए। इसी फिल्म को सन 1973 का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। मध्य वर्ग के लोगों ने तो एक से ज़्यादा बार भी यह फिल्म देखी। यह एक ऐसी प्रेम कहानी है जो आंखों की रौशनी को केंद्रीय बिंदु बना कर बनी गई है। नायक पूरी तरह अच्छा भला लेकिन नायका की आंखों में रौशनी नहीं। ऐसी स्थिति में भी प्रेम होता है और पूरी शिद्दत से होता है। यूं कह लो कि इश्क यहां भी अपना लोहा मनवा लेता है। इसी फिल्म का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। इस फिल्म में नायक का नायिका से वायदा है: फिल्म के पांच यादगारी गीतों में इस गीत का जादू अनूठा ही था 
तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊँगा
अपनी आँखों से दुनिया दिखलाऊँगा
नायक और नायका शायद सागर के सामने खड़े हैं। सागर और हवा की अठखेलियों का सहारा ले कर रूमानी सा माहौल बनाया जाता है और इसी माहौल में गीत शुरू होता है एक सादा किस्म के सवाल से--वो क्या है?
जवाब भी बहुत सीधा और सादा से। वो क्या है पूछे जाने पर जवाब मिलता है-इक मंदिर है। नया सवाल होता है उस मंदिर में? इसका जवाब भी बहुत सीधा सा-उस इक मूरत है। अगला सवाल है--वो मूर्त कैसी होती है-जवाब बहुत ही रूमानी है--तेरी सूरत जैसी होती है...! कितनी दिव्यता है गीत के इन बोलो में। कितना विश्वास है। इसी गीत के किसी अगले सवाल में एक अंधी लड़की को जब उसका प्रेमी तीसरा सवाल करता है कि तुमने कैसे जान लिया? इस सवाल से दिल, दिमाग और मन फ़िल्म के सभी दृश्यों से किसी हल्की सनसनी की तरह कट जाता है दर्शक को इसका न तो अहसास होता है और न ही कोई झटका लगता है। यही है निर्देशक का कमाल कि दर्शक भी फ़िल्म के दृश्यों और गीत के बोलों के साथ बहता हुआ यही पूछने लगता है-तुमने कैसे जान लिया? इस सवाल का जवाब बहुत गहरा है। अपने आप में पूरा फलसफा समेटे हुए। तुमने कैसे जान लिया के जवाब में मन की शक्ति का अहसास कराता यह जवाब कहता है-मन से आंखों का काम लिया! धार्मिक प्रवचनों से दूर-धार्मिक परिवेश से दूर बैठे दर्शक को पहली बार मन की शक्ति का अहसास इतने संगीतमय और काव्य से भरे इतने मधुर लेकिन बहुत सादगी भरे शब्दों से कराया जाता है-मन से आंखों का काम लिया!
इसके बाद भी गीत अपनी दिलचस्पी को कायम रखता हुआ आगे बढ़ता है। 
लीजिये यह पूरा गीत भी पढ़िए जिसे लिखा था जनाब आनंद बख्शी साहिब ने और संगीत से सजाया था एस.डी. बर्मन साहिब नेआवाज़ दी थी जनाब मोहम्मद रफ़ी साहिब और सुर साम्राज्ञी  मंगेशकर ने। इस फिल्म के पांच यादगारी गीतों में से इस गीत का जादू कुछ अलग सा ही रहा। 
अब लीजिये इस गीत के यादगारी बोल भी गुनगुनाईये 
तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊँगा
अपनी आँखों से दुनिया दिखलाऊँगा


अच्छा?
वो क्या है? इक मंदिर है 
उस मंदिर में? इक मूरत है 
ये मूरत कैसी होती है?
तेरी सूरत जैसी होती है 
वो क्या है? इक मंदिर है 



मैं क्या जानूँ छाँव है क्या और धूप है क्या
रंग-बिरंगी इस दुनिया का रूप है क्या
वो क्या है? इक परबत है 
उस परबत पे? इक बादल है
ये बादल कैसा होता है?
तेरे आँचल जैसा होता है
वो क्या है? इक परबत है



मस्त हवा ने घूंघट खोला, कलियों का 
झूम के मौसम आया है रंगरलियों का 
वो क्या है? इक बगिया है 
उस बगिया में? कई भँवरे हैं
भँवरे क्या जोगी होते हैं?
नहीं, दिल के रोगी होते हैं
वो क्या है? इक बगिया है



ऐसी भी अनजान नहीं मैं अब सजना 
बिन-देखे मुझ को दिखता है सब सजना 
अच्छा?
वो क्या है? वो सागर है 
उस सागर में? इक नैया है
अरे, तूने कैसे नाम लिया?
मन से आँखों का काम लिया
वो क्या है? वो सागर है

बुधवार, 8 जनवरी 2020

शब्द और संगीत का जादू महसूस होता है इस गीत में

ग़ालिब साहिब की ग़ज़ल पर आधारित यह गीत सीधा दिल में उतरता है 
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
मैं इसे बचपन की उस उम्र से सुनता आ रहा हूँ जब मुझे न तो उर्दू की समझ थी न ही शायरी या  संगीत की। मेरे मामा ज्ञानी राजिंदर सिंह छाबड़ा (फ़िरोज़पुर) उन दिनों ग्रामोफोन लाए थे। ग्रामोफोन का होना उन दिनों कलाकारों की एक ज़रूरत थी लेकिन बहुत से लोगों के लिए यह स्टेटससिंबल ही बन गया था। मामा जी संगीत के भी अच्छे जानकार थे और शायरी व लेखन में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी।  मैं अक्सर उनके घर के उस कलात्मक माहौल में अक्सर जाता। वहां साधारण सा घर होते हुए भी बहुत कलात्मिक्ता थी। किराए पर तीन घर बदलने के बाद उन्होंने बस स्टैंड के नज़दीक अपना घर बनाया लेकिन उस घर में वह पहले जैसा माहौल कभी न बन पाया। फिर उसी घर में अचानक उनका देहांत हो गया। उम्र बढ़ रही थी सेहत खराब हो रही थी। एक दिन पुरानी किताबों को संभाल रहे थे कि अचानक नज़र कुछ ख़ास किताबों पर पड़ी। शायद उन किताबों को सीलन लग गयी थी। ऊपर की शैल्फ किताबें उतारने लगे तो पूरी अलमारी ऊपर आ गिरी।  शायद किताबों के खराब होने का सदमा कहीं गहरे में लगा था। उसके कुछ देर बाद ही उनका देहांत हो गया। मुझे देर रात खबर आई। सुबह सुबह हम लोग लुधियाना से फ़िरोज़पुर पहुंचे। उनके बच्चों ने यही कहा कि उनको मेरी मां के जाने का गम था। मां का देहांत भी कुछ महीने पहले ही हुआ था। दोनों भाई बहनों का प्रेम भी बहुत था।  न जाने क्या हुआ लेकिन मामा नहीं रहे। उनकी यादों में मिर्ज़ा ग़ालिब की रचनाओं का सुनना भी था। मैं इतना छोटा था कि ग्रामोफोन के रेकॉर्ड पर पड़ने वाली सूई को बहुत देर इस लिए देखता रहता कि गीत की आवाज़ सूई में से निकलती है या इस काले तवे जैसे रेकार्ड में से। जिस रेकार्ड से हम मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की लिखी ग़ज़लें सुनते वे एल पी अर्थात लॉन्ग प्लेयर रेकार्ड हुआ करता था। यह बड़े से गोल तवे जैसा होता और इसमें कई गीत हुआ करते।  इसे लगा कर आप आराम से बैठ सकते या काम कर सकते थे। एक के बाद एक गीत लगातार बजते रहते। जिस गीत की चर्चा कर रहे थे वह वास्तव में जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की लिखी रचना ही थी।  इसे गीत के रूप में ढाल कर "मिर्ज़ा ग़ालिब" नाम की फिल्म में ही सजाया गया था। यह फिल्म 1954 में आई थी। इसे अपनी आवाज़ दी थी सुरैया और जनाब तलत महमूद साहिब ने। संगीत दिया थे जनाब गुलाम मोहम्मद साहिब ने। सुरैया ने इसी फिल्म में अदाकारी भी की थी।  भारतभूषण, दुर्गा खोते, सआदत अली, उल्हास और कई अन्य मंजे हुए कलाकार। फिल्म निर्देशक थे सोहराब मोदी और निर्माता थे मिनर्वा मूवीटोन बैनर। संगीतकार जनाब गुलाम मोहम्मद साहिब की चर्चा हम किसी अलग पोस्ट में भी कर रहे हैं। फिलहाल आप सुनिए/पढ़िए वह लोकप्रिय गीत/ग़ज़ल--दिल-ए-नादां तुझे हुआ  क्या है!  
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है?
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दा क्या है
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
जान तुम पर निसार करता हूँ
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की ग़ज़ल पर आधारित यह चर्चा आपको कैसी लगी। इसका ज़िक्र आपको यहाँ सब कैसा लगा अवश्य बताएं। यदि आपके मन में भी इसी तरह कोई गीत/ग़ज़ल या फिल्म छुपे हुए हों तो अवश्य उनकी चर्चा करें। आपकी  इंतज़ार रहेगी। --रेक्टर कथूरिया  
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शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हम ने

इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
फेसबुक: 10 फरवरी 2018: (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन)::
सुल्ताना बेगम साहिबा से मुलाकात किसी भी तरह हो--उनके लिखे शब्दों के ज़रिये या फिर आमने सामने या फिर तस्सवुर में--
एक बात पक्की है कि कुछ देर के लिए आप वोह नहीं रहते जो मिलने से पहले थे। 
आपको लगने लगेगा कि आप अपने अनुभव में ज़िंदगी के ज्ञान की असली और अनमोल पूँजी पा कर ही उठे हैं। शगूफा शब्द कहने को शायद किसी हल्के फुल्के अहसास या हंसी की याद दिलाता हो लेकिन सुलताना बेगम जी के लिखे शगूफे ज़िंदगी की भूल चुकी आंतरिक परतों को उघाड़ते हुए अक्सर वहां ले जाते है जहाँ हम जाने के इच्छुक नहीं भी होते। बिलकुल उसी तरह जैसे हमारा बस चले तो हम आईना भी वही लाएं जो हमें हमारी मर्ज़ी की खूबसूरत शक्ल ही दिखाए। सुल्ताना बेगम भी अपने शब्दों से कई बार आईना दिखाती हैं। आज उनके एक पंजाबी शेयर की  पोस्ट पढ़ी:
दिल में वसल-ए-यार की आरज़ू न रही;
कैसे कहूं कि अब कोई आरज़ू न रही। 
इस पोस्ट को पढ़ते ही याद आयी बरसात की रात की क्वाली। ख़ास कर इसकी वो पंक्तियाँ---
मेरे नामुराद जनून का; गर है इलाज कोई तो मौत है;
जो दवा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है। 
यह सब यहाँ इस लिए लिख रहा हूँ तांकि आप सभी को पता चल सके कि सुल्ताना बेगम के शब्दों को पढ़ते पढ़ते इंसान कहाँ से कहाँ जा सकता है। किसी सहरा में भी किसी समुन्द्र में भी। गहरी शांति में भी और किसी तूफानी हालत में भी। लेकिन आप फिलहाल सुनिए//देखिये इस ग़ज़ल को--
जुस्तजु जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने;
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने।
फिल्म उमरायो जान 1981 में रलीज़ हुयी थी और इस फिल्म ने एक गंभीर दर्शक वर्ग की पहचान को और मज़बूत किया था। आवाज़ आशा भौंसले की थी, शब्द थे शहरयार के और संगीत से सजाया था ख्याम साहिब ने। समझना मुश्किल था--अब भी मुश्किल ही है कि आप इस को इसके शब्दों की वजह से पसंद करते हैं, इसकी गायन आवाज़ के लिए पसंद करते हैं या फिर इसके संगीत की वजह से। इन तीनों महारथियों का ऐसा संगम बार बार नहीं बनता। 
जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमां न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं

जिंदगी तुझ को तो बस ख्वाब में देखा हम ने
ऐ अदा और सुनाये भी तो क्या हाल अपना

उम्र का लंबा सफर तय किया तन्हा हम ने
फ़िल्मी दुनिया की मानी हुयी हस्ती रेखा का स्केच बनाने वाली अंजना वर्मा जी से आप मिल सकते हैं  यहाँ क्लिक करके 

सोमवार, 3 मार्च 2014

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वे कहाँ हैं

वह गीत जिस के साथ शुरू हुआ सत्ता और साहिर का टकराव 

बहुत से पुराने लोग बताया करते थे जब जनाब साहिर लुधियानवी ने मंच पर इस गीत को प्रस्तुत किया तो वहाँ उस समय के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी मौजूद थे। उन्होंने इस गीत की कड़वी हकीकत को खुद पर आघात समझा और साहिर से नाराज़ हो गए। जब यह गीत फ़िल्म प्यासा में शामिल किया गया तो इस की मुख्य पंक्ति स्नखाने-तक़दीसे मशरिक कहाँ है को बदल कर कुछ आसान कर दिया गया----जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वे कहाँ हैं---आज भी इस गीत का सच अंतर्मन को हिला देता है---और सवाल उठने लगता है हम किस भारत को महान कहे जा रहे हैं---अगर महानता के इस दावे में आज़ादी के इतने बरसों के बाद भी वह सब शामिल है जो इस गीत में है तो मुझे इस महानता की बात कहते हुए शर्म आती है---!
                                                                -रेकटर कथूरिया //पंजाब स्क्रीन//098882 72025)
05-09-2011 को अपलोड किया गया
First time saw this movie on Doordarshan tv in 1977 and same day theives tried to break in our house. How can I forget these two things in my life. Introduction of Guru Dutt to my filmi knowledge was very new and surpiring to me. And this masterpiece took top spot on my best movies chart.

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

Voice of Urdu poet Kaifi Azmi on his immortal writing



19-02-2014 पर प्रकाशित
Sayyid Akhtar Hessein Rizvi better known as Kaifi Azmi was an Urdu poet. He is considered to be one of the greatest Urdu poets of 20th Century. He was born on January 14th, 1919, Azamgarh and passed away on May 10, 2002 in Mumbai. He was married to Ms. Shaukat Kaifi was the father of a very talented actress Ms. Shabana Azmi.

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

एक छोटी सी मुलाकात गुलज़ार साहिब के साथ

An Interaction with poet & lyricist, Shri Gulzar 


साहित्य और फ़िल्मी दुनिया में अपना एक अलग स्थान रखने वाले लोकप्रिय शायर गुलज़ार साहिब की हर पंक्ति के हर शब्द में कोई गहरी बात छुपी होती है---समझ आ जाये तो सोने पे सुहाग पर अगर कभी कभी पूरी समझ न भी ए तो मज़ा देती है---दिल और दिमाग में पड़ी पड़ी अंकुरित होती रहती है और फिर एक दिन अचानक लगता है जैसे कुछ मिल गया---गुलज़ार साहिब की वोह अनबुझ पहेली अचानक समझ में आने लगती है---तब एक अलग सा अहसास होता है-----शायद सम्बोधि जैसा---तब लगता है जैसी अपने ही दिल कि कोई छुपी बात सामने आ गयी हो---अपनी ही कोई उलझन समझ आ गयी हो---तब समझ में आने लगता है कि जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ भी पहुंचे कवि---तब वोह बात गुलज़ार साहिब की नहीं अपनी बात लगती है---अपनी बात करने वाले जनाब गुलज़ार साहिब भी तब अपने अपने से लगते हैं--कोई पराए नहीं---कोई दुसरे नहीं---बिलकुल अपने से---उन्हीं गुलज़ार साहिब के साथ देखिये यह मुलाकात---स्रोत:INB MINISTRY और YouTube---!  --रेकटर कथूरिया