गुरुवार, 9 जनवरी 2020

फिल्म के पांच यादगारी गीतों में इस गीत का जादू अनूठा ही था

मन की शक्ति का फलसफा भी याद दिलाती है फिल्म अनुराग 
फ़िल्मी दुनिया-फ़िल्मी यादें: 9 जनवरी 2020: (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)::
अपने ज़माने में हिंदी फ़िल्म "अनुराग" बहुत हिट हुई थी। सन 1972 के आखिरी महीने दिसंबर में रिलीज़ हुई इस फिल्म ने दर्शकों को चुंबक की तरह खींचा था। निर्माता निर्देशक थे शक्ति सामंत।  मौसमी चटर्जी की तो यह पहली फिल्म थी। राजेश खन्ना भी इसी फिल्म के एक छोटे से रोल में नज़र आए। इसी फिल्म को सन 1973 का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। मध्य वर्ग के लोगों ने तो एक से ज़्यादा बार भी यह फिल्म देखी। यह एक ऐसी प्रेम कहानी है जो आंखों की रौशनी को केंद्रीय बिंदु बना कर बनी गई है। नायक पूरी तरह अच्छा भला लेकिन नायका की आंखों में रौशनी नहीं। ऐसी स्थिति में भी प्रेम होता है और पूरी शिद्दत से होता है। यूं कह लो कि इश्क यहां भी अपना लोहा मनवा लेता है। इसी फिल्म का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। इस फिल्म में नायक का नायिका से वायदा है: फिल्म के पांच यादगारी गीतों में इस गीत का जादू अनूठा ही था 
तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊँगा
अपनी आँखों से दुनिया दिखलाऊँगा
नायक और नायका शायद सागर के सामने खड़े हैं। सागर और हवा की अठखेलियों का सहारा ले कर रूमानी सा माहौल बनाया जाता है और इसी माहौल में गीत शुरू होता है एक सादा किस्म के सवाल से--वो क्या है?
जवाब भी बहुत सीधा और सादा से। वो क्या है पूछे जाने पर जवाब मिलता है-इक मंदिर है। नया सवाल होता है उस मंदिर में? इसका जवाब भी बहुत सीधा सा-उस इक मूरत है। अगला सवाल है--वो मूर्त कैसी होती है-जवाब बहुत ही रूमानी है--तेरी सूरत जैसी होती है...! कितनी दिव्यता है गीत के इन बोलो में। कितना विश्वास है। इसी गीत के किसी अगले सवाल में एक अंधी लड़की को जब उसका प्रेमी तीसरा सवाल करता है कि तुमने कैसे जान लिया? इस सवाल से दिल, दिमाग और मन फ़िल्म के सभी दृश्यों से किसी हल्की सनसनी की तरह कट जाता है दर्शक को इसका न तो अहसास होता है और न ही कोई झटका लगता है। यही है निर्देशक का कमाल कि दर्शक भी फ़िल्म के दृश्यों और गीत के बोलों के साथ बहता हुआ यही पूछने लगता है-तुमने कैसे जान लिया? इस सवाल का जवाब बहुत गहरा है। अपने आप में पूरा फलसफा समेटे हुए। तुमने कैसे जान लिया के जवाब में मन की शक्ति का अहसास कराता यह जवाब कहता है-मन से आंखों का काम लिया! धार्मिक प्रवचनों से दूर-धार्मिक परिवेश से दूर बैठे दर्शक को पहली बार मन की शक्ति का अहसास इतने संगीतमय और काव्य से भरे इतने मधुर लेकिन बहुत सादगी भरे शब्दों से कराया जाता है-मन से आंखों का काम लिया!
इसके बाद भी गीत अपनी दिलचस्पी को कायम रखता हुआ आगे बढ़ता है। 
लीजिये यह पूरा गीत भी पढ़िए जिसे लिखा था जनाब आनंद बख्शी साहिब ने और संगीत से सजाया था एस.डी. बर्मन साहिब नेआवाज़ दी थी जनाब मोहम्मद रफ़ी साहिब और सुर साम्राज्ञी  मंगेशकर ने। इस फिल्म के पांच यादगारी गीतों में से इस गीत का जादू कुछ अलग सा ही रहा। 
अब लीजिये इस गीत के यादगारी बोल भी गुनगुनाईये 
तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊँगा
अपनी आँखों से दुनिया दिखलाऊँगा


अच्छा?
वो क्या है? इक मंदिर है 
उस मंदिर में? इक मूरत है 
ये मूरत कैसी होती है?
तेरी सूरत जैसी होती है 
वो क्या है? इक मंदिर है 



मैं क्या जानूँ छाँव है क्या और धूप है क्या
रंग-बिरंगी इस दुनिया का रूप है क्या
वो क्या है? इक परबत है 
उस परबत पे? इक बादल है
ये बादल कैसा होता है?
तेरे आँचल जैसा होता है
वो क्या है? इक परबत है



मस्त हवा ने घूंघट खोला, कलियों का 
झूम के मौसम आया है रंगरलियों का 
वो क्या है? इक बगिया है 
उस बगिया में? कई भँवरे हैं
भँवरे क्या जोगी होते हैं?
नहीं, दिल के रोगी होते हैं
वो क्या है? इक बगिया है



ऐसी भी अनजान नहीं मैं अब सजना 
बिन-देखे मुझ को दिखता है सब सजना 
अच्छा?
वो क्या है? वो सागर है 
उस सागर में? इक नैया है
अरे, तूने कैसे नाम लिया?
मन से आँखों का काम लिया
वो क्या है? वो सागर है

बुधवार, 8 जनवरी 2020

शब्द और संगीत का जादू महसूस होता है इस गीत में

ग़ालिब साहिब की ग़ज़ल पर आधारित यह गीत सीधा दिल में उतरता है 
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
मैं इसे बचपन की उस उम्र से सुनता आ रहा हूँ जब मुझे न तो उर्दू की समझ थी न ही शायरी या  संगीत की। मेरे मामा ज्ञानी राजिंदर सिंह छाबड़ा (फ़िरोज़पुर) उन दिनों ग्रामोफोन लाए थे। ग्रामोफोन का होना उन दिनों कलाकारों की एक ज़रूरत थी लेकिन बहुत से लोगों के लिए यह स्टेटससिंबल ही बन गया था। मामा जी संगीत के भी अच्छे जानकार थे और शायरी व लेखन में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी।  मैं अक्सर उनके घर के उस कलात्मक माहौल में अक्सर जाता। वहां साधारण सा घर होते हुए भी बहुत कलात्मिक्ता थी। किराए पर तीन घर बदलने के बाद उन्होंने बस स्टैंड के नज़दीक अपना घर बनाया लेकिन उस घर में वह पहले जैसा माहौल कभी न बन पाया। फिर उसी घर में अचानक उनका देहांत हो गया। उम्र बढ़ रही थी सेहत खराब हो रही थी। एक दिन पुरानी किताबों को संभाल रहे थे कि अचानक नज़र कुछ ख़ास किताबों पर पड़ी। शायद उन किताबों को सीलन लग गयी थी। ऊपर की शैल्फ किताबें उतारने लगे तो पूरी अलमारी ऊपर आ गिरी।  शायद किताबों के खराब होने का सदमा कहीं गहरे में लगा था। उसके कुछ देर बाद ही उनका देहांत हो गया। मुझे देर रात खबर आई। सुबह सुबह हम लोग लुधियाना से फ़िरोज़पुर पहुंचे। उनके बच्चों ने यही कहा कि उनको मेरी मां के जाने का गम था। मां का देहांत भी कुछ महीने पहले ही हुआ था। दोनों भाई बहनों का प्रेम भी बहुत था।  न जाने क्या हुआ लेकिन मामा नहीं रहे। उनकी यादों में मिर्ज़ा ग़ालिब की रचनाओं का सुनना भी था। मैं इतना छोटा था कि ग्रामोफोन के रेकॉर्ड पर पड़ने वाली सूई को बहुत देर इस लिए देखता रहता कि गीत की आवाज़ सूई में से निकलती है या इस काले तवे जैसे रेकार्ड में से। जिस रेकार्ड से हम मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की लिखी ग़ज़लें सुनते वे एल पी अर्थात लॉन्ग प्लेयर रेकार्ड हुआ करता था। यह बड़े से गोल तवे जैसा होता और इसमें कई गीत हुआ करते।  इसे लगा कर आप आराम से बैठ सकते या काम कर सकते थे। एक के बाद एक गीत लगातार बजते रहते। जिस गीत की चर्चा कर रहे थे वह वास्तव में जनाब मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की लिखी रचना ही थी।  इसे गीत के रूप में ढाल कर "मिर्ज़ा ग़ालिब" नाम की फिल्म में ही सजाया गया था। यह फिल्म 1954 में आई थी। इसे अपनी आवाज़ दी थी सुरैया और जनाब तलत महमूद साहिब ने। संगीत दिया थे जनाब गुलाम मोहम्मद साहिब ने। सुरैया ने इसी फिल्म में अदाकारी भी की थी।  भारतभूषण, दुर्गा खोते, सआदत अली, उल्हास और कई अन्य मंजे हुए कलाकार। फिल्म निर्देशक थे सोहराब मोदी और निर्माता थे मिनर्वा मूवीटोन बैनर। संगीतकार जनाब गुलाम मोहम्मद साहिब की चर्चा हम किसी अलग पोस्ट में भी कर रहे हैं। फिलहाल आप सुनिए/पढ़िए वह लोकप्रिय गीत/ग़ज़ल--दिल-ए-नादां तुझे हुआ  क्या है!  
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है?
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दा क्या है
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
जान तुम पर निसार करता हूँ
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?
मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब की ग़ज़ल पर आधारित यह चर्चा आपको कैसी लगी। इसका ज़िक्र आपको यहाँ सब कैसा लगा अवश्य बताएं। यदि आपके मन में भी इसी तरह कोई गीत/ग़ज़ल या फिल्म छुपे हुए हों तो अवश्य उनकी चर्चा करें। आपकी  इंतज़ार रहेगी। --रेक्टर कथूरिया  
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मंगलवार, 7 जनवरी 2020

एक कहानी जो आपको नए रंग में रंग देगी

 रिश्तों में छुपी रूहानियत और पावन इश्क का अहसास 
इस कोलाज में जो डिनर की तस्वीर दिख रही है वह धन्यवाद सहित ली गई है आर जे Danish Sait की फेसबुक वाल से 
अतीत की दुनिया: 7 जनवरी 2020: (पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)::
आल इण्डिया रेडियो की उर्दू सर्विस कभी बेहद मकबूल थी। इस सर्विस ने दोस्तों का एक नया नेटवर्क बनाया था। समाज को  बहुत ही शानदार भूमिका निभाई।  टीवी की लोकप्रियता तक भी उर्दू सर्विस छाई रही। इसी में एक प्रग्राम होता था रात को साढ़े बजे (10:30)  से लेकर सवा ग्यारह (11:15) बजे तक। दिल और दिमाग में आज तक जगह बना कर मौजूद उस प्रोग्राम का नाम था-तामील-इ-इरशाद।  हम लोग छोटा सा रेडिओ अपनी अपनी रजाई में छुपाकर पुराने गीत सुना करते। इस प्रोग्राम को पेश करने वालों की टीम भी बहुत शानदार थी।  दिलों में उतरती बातों के ज़रिये इन सभी से एक अलग सा रिश्ता भी था। एक बार रेडिओ स्टेशन के परिसर में जनाब शमीम कुरैशी साहिब से मुलाकात हुई। हम सभी उनके फैन थे। बहुत अच्छा चुनाव होता था उनके गीतों का। एक गीत को दुसरे गीत के साथ  लिंकिंग के शब्द भी कमल के हुआ करते थे। एक दिन शाम की चाय पीते उनसे पूछा आप ने कभी सच में भी इश्क किया है? झट से मुस्करा कर बोले हाँ किया है-अपनी मां से किया सबसे पहला इश्क। उसी अहसास से पता चला कि इश्क कितना रूहानी और पावन होता है। आज एक कहानी को  थो शम्मी साहिब याद आ गये। यह कहानी किसी मित्र ने बहुत पहले भेजी थी लेकिन सम्पादन के लिए पेंडिंग पड़ी सामग्री में से आज सामने आई। देखिये-पढ़िए और बताइये इसे पढ़ कर मन में क्या आया! --रेक्टर कथूरिया
एक दिन अचानक मेरी पत्नी मुझसे बोली - "सुनो, अगर मैं तुम्हे किसी और के साथ डिनर और फ़िल्म के लिए बाहर जाने को कहूँ तो तुम क्या कहोगे"।
मैं बोला-" मैं कहूँगा कि अब तुम मुझे प्यार नहीं करती"।
उसने कहा-"मैं तुमसे प्यार करती हूँ, लेकिन मुझे पता है कि यह औरत भी आपसे बहुत प्यार करती है और आप के साथ कुछ समय बिताना उनके लिए सपने जैसा होगा"।

वह अन्य औरत कोई और नहीं मेरी माँ थी। जो मुझ से अलग अकेली रहती थी। अपनी व्यस्तता के कारण मैं उन से मिलने कभी कभी ही जा पाता था।

मैंने माँ को फ़ोन कर उन्हें अपने साथ रात के खानेे और एक फिल्म के लिए बाहर चलने के लिए कहा।

"तुम ठीक तो हो,ना। तुम दोनों के बीच कोई परेशानी तो नहीं" माँ ने पूछा

मेरी माँ थोडा शक्की मिजाज़ की औरत थी। उनके लिए मेरा इस किस्म का फ़ोन मेरी किसी परेशानी का संकेत था।
" नहीं कोई परेशानी नहीं। बस मैंने सोचा था कि आप के साथ बाहर जाना एक सुखद अहसास होगा" मैंने जवाब दिया और कहा 'बस हम दोनों ही चलेंगे"।

उन्होंने इस बारे में एक पल के लिए सोचा और फिर कहा, 'ठीक है।'

शुक्रवार की शाम को जब मैं उनके घर पर पहुंचा तो मैंने देखा है वह भी दरवाजे पर इंतजार कर रही थी। वो एक सुन्दर पोशाक पहने हुए थी और उनका चहेरा एक अलग सी ख़ुशी में चमक रहा था।

कार में माँ ने कहा " 'मैंने अपनी friends को बताया कि मैं अपने बेटे के साथ बाहर खाना खाने के लिए जा रही हूँ। वे काफी प्रभावित थी"।

हम लोग माँ की पसंद वाले एक रेस्तरां पहुचे जो बहुत सुरुचिपूर्ण तो नहीं मगर अच्छा और आरामदायक था। हम बैठ गए, और मैं मेनू देखने लगा। मेनू पढ़ते हुए मैंने आँख उठा कर देखा तो पाया कि वो मुझे ही देख रहीं थी और एक उदास सी मुस्कान उनके होठों पर थी।

'जब तुम छोटे थे तो ये मेनू मैं तुम्हारे लिए पढ़ती थी' उन्होंने कहा।

'माँ इस समय मैं इसे आपके लिए पढना चाहता हूँ,' मैंने जवाब दिया।

खाने के दौरान, हम में एक दुसरे के जीवन में घटी हाल की घटनाओं पर चर्चा होंने लगी। हम ने आपस में इतनी ज्यादा बात की, कि पिक्चर का समय कब निकल गया हमें पता ही नही चला।

बाद में वापस घर लौटते समय माँ ने कहा कि अगर अगली बार मैं उन्हें बिल का पेमेंट करने दूँ, तो वो मेरे साथ दोबारा डिनर के लिए आना चाहेंगी।
मैंने कहा "माँ जब आप चाहो और बिल पेमेंट कौन करता है इस से क्या फ़र्क़ पड़ता है।
माँ ने कहा कि फ़र्क़ पड़ता है और अगली बार बिल वो ही पे करेंगी।

"घर पहुँचने पर पत्नी ने पूछा" - कैसा रहा।
"बहुत बढ़िया, जैसा सोचा था उससे कही ज्यादा बढ़िया" - मैंने जवाब दिया।

इस घटना के कुछ दिन बाद, मेरी माँ का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। यह इतना अचानक हुआ कि मैं उनके लिए कुछ नहीं कर पाया ।

माँ की मौत के कुछ समय बाद, मुझे एक लिफाफा मिला जिसमे उसी रेस्तरां की एडवांस पेमेंट की रसीद के साथ माँ का एक ख़त था जिसमे माँ ने लिखा था " मेरे बेटे मुझे पता नहीं कि मैं तुम्हारे साथ दोबारा डिनर पर जा पाऊँगी या नहीं इसलिए मैंने दो लोगो के खाने के अनुमानित बिल का एडवांस पेमेंट कर दिया है। अगर मैं नहीं जा पाऊँ तो तुम अपनी पत्नी के साथ भोजन करने जरूर जाना।
उस रात तुमने कहा था ना कि क्या फ़र्क़ पड़ता है। मुझ जैसी अकेली रहने वाली बूढी औरत को फ़र्क़ पड़ता है, तुम नहीं जानते उस रात तुम्हारे साथ बीता हर पल मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन समय में एक था।
भगवान् तुम्हे सदा खुश रखे।
I love you".
तुम्हारी माँ

उस पल मुझे अपनों को समय देने और उनके प्यार को महसूस करने का महत्त्व मालूम हुआ।

रविवार, 5 जनवरी 2020

बचपन से ले कर अब बुढ़ापे तक क्यों है मुझे इस गीत से लगाव?

मेरा जन्म 1958 का और यह फिल्म रिलीज़ हुई थी सन 1964 में 
तेरी आँख के आंसू पी जाऊं-ऐसी मेरी तक़दीर कहां ! यह गीत मुझे बचपन से ही पसंद था। जब भी रेडियो पर यह गीत आता मैं सब काम छोड़ कर इसे सुनता।मेरा जन्म मार्च 1958 का है और यह फिल्म आई थी सन 1964 में। अर्थात मैं उस समय महज़ छह वर्ष की उम्र का था।
गीत अक्सर ही फिल्म रिलीज़ होने से बहुत पहले गूंजने लगते थे सो यह गीत भी बहुत पहले आ गया था। न तो मुझे इसके शब्दों का पूरा पता था और न ही इसके अर्थ मालुम होते थे। फिल्म का भी कुछ पता न था लेकिन इस एक पंक्ति का अर्थ मालूम था कि कोई किसी के आंसू पीने की बात कह रहा है। इस फिल्म ने उन दिनों 11 मिलियन भारतीय रूपये कमाए थे। उस समय में यह बहुत बड़ी रकम थी। उन दिनों मुझे उस कमाई का भी कुछ पता न चला। चल जाता तो शायद मैं भी उसी तरह की कमाई की बात सोचता। पता भी चला तो बस आंसूयों का। मुझे उस उम्र में भी बहुत से आंसू बहाने पड़े थे शायद उन आंसूयों ने ही यह समझ दे दी कि इस गीत के मुखड़े को समझ सकूं। आंसूओं का एक रिश्ता सा बन गया था इस गीत के साथ।
इस गीत के गीतकार रजिंदर कृष्ण दुग्गल गीत में छुपे दर्द के अहसास के कारण अपने अपने से लगने लगे। इसके साथ ही संगीतकार मदनमोहन साहिब के साथ भी एक दिल का रिश्ता स्थापित हुआ। मुझे अफ़सोस रहेगा कि इन दोनों से मैं अब तक नहीं मिल पाया। माला सिन्हा और तलत महमूद साहिब से भी भेंट नहीं हो सकी। निर्देशक थे विनोद कुमार और संगीत दिया था मदन मोहन साहिब ने।  मदन मोहन साहिब का 14 जुलाई 1975 को निधन हो गया और गीतकार रजिंदर कृष्ण 23 सितंबर 1987 को सिर्फ 68 वर्ष की उम्र में चल बसे। इन दोनों से कभी न मिल पाने के सदमे ने मुझे समझाया कि आर्थिक मजबूरियां कितना कुछ छीन लेती हैं। गीतकार जनाब राजेंद्र कृष्ण और इस सदा बहार गीत को आवाज़ देने वाले जनाब तलत महमूद साहिब के संयोजन ने इस गीत को भी अमर कर दिया। भारत भूषण, माला सिन्हा, शशि कला, पृथ्वी राज कपूर, ॐ प्रकाश, सुंदर अरुणा ईरानी, रणधीर, मीनू मुमताज़ और फरीदा जलाल जैसे मंजे हुए कलाकारों ने इस फिल्म में जान फूंक दी थी। उनकी आवाज़ में महसूस होता कंपन एक अजीब सा अहसास कराता है। गीत के शब्दों का दर्द उस कंपन के कारण शायद ज़्यादा महसूस होता है। यह कंपन ही उनकी आवाज़ को विलक्षण बनाता है। 
यहाँ पूरा गीत भी दिया जा रहा है। जब गीत की पहली पंक्ति कानों में पड़ती है या शब्दों में दिखाई देती है तो वह पहली पंक्ति ज़िंदगी की मजबूरियों को बहुत ही सादगी से प्रस्तुत करती है;सामने है। वह पहली पंक्ति कहती है:
तेरा ग़मख़्वार हूँ लेकिन मैं तुझ तक आ नहीं सकता----और दूसरी पंक्ति इसी शिद्द्त को आगे बढ़ाती है--मैं अपने नाम तेरी बेकसी लिखवा नहीं सकता---कितना अजीब सा अहसास है--कितनी सूक्ष्म सी पकड़ है। जब लोग ज़मीन जायदादों को अपने  नाम करवाने के इलावा और कुछ नहीं सोचते और इस मकसद के लिए कत्लोगार्त तक कर डालते हैं उस माहौल में भी कोई किसी की बेकसी अपने नाम लिखवाने की चाह में है। एक बार इस गीत की इस पंक्ति को मैंने अपने वाटसप पर लिख लिया। इसे देख कर एक महिला मित्र ने सवाल किया--किस के आंसू पीना चाहते हो? सवाल सुन कर बहुत अजीब भी लगा पर झट से कह दिया मैडम आपके आंसू? वह बोली सच? मैंने कहा हां  बिलकुल सच। मैं उसके कितने आंसू पी पाया और कितने नहीं यह एक अलग कहानी है। इसकी चर्चा कभी फिर सही। फ़िलहाल आप पढ़िए//देखिये और सुनिए देखिये इस गीत को जो आज भी मुझे से जुड़ा हुआ है। 
तेरा ग़मख़्वार हूँ लेकिन मैं तुझ तक आ नहीं सकता
मैं अपने नाम तेरी बेकसी लिखवा नहीं सकता

तेरी आँख के आँसू पी जाऊं ऐसी मेरी तक़दीर कहाँ 
तेरे ग़म में तुझको बहलाऊं ऐसी मेरी तक़दीर कहाँ

ऐ काश जो मिल कर रोते, कुछ दर्द तो हलके होते
बेकार न जाते आँसू, कुछ दाग़ जिगर के धोते
फिर रंज न होता इतना, है तनहाई में जितना
अब जाने ये रस्ता ग़म का, है और भी लम्बा कितना
हालात की उलझन सुलझाऊँ ऐसी मेरी तक़दीर कहाँ
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ-----
आपको यह ब्लॉग कैसा लगा? यह गीत और इसका संगीत कैसा लगा? इस गीत के साथ मेरे इस लगाव की बात कैसी लगी?  क्या आपको भी कभी किसी गीत के साथ ऐसा ही लगाव हुआ? हुआ तो अवश्य बताना। इंतज़ार रहेगी ही। अगली पोस्ट में मैं बता सकूंगा किसी ऐसे ही गीत के बारे में जिस को लेकर मुझे परिवार और बिरादरी में बहुत से सवाल भी हुए। इस गीत की चर्चा भी जल्दी ही। ---रेक्टर कथूरिया (पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)