रविवार, 5 जनवरी 2020

बचपन से ले कर अब बुढ़ापे तक क्यों है मुझे इस गीत से लगाव?

मेरा जन्म 1958 का और यह फिल्म रिलीज़ हुई थी सन 1964 में 
तेरी आँख के आंसू पी जाऊं-ऐसी मेरी तक़दीर कहां ! यह गीत मुझे बचपन से ही पसंद था। जब भी रेडियो पर यह गीत आता मैं सब काम छोड़ कर इसे सुनता।मेरा जन्म मार्च 1958 का है और यह फिल्म आई थी सन 1964 में। अर्थात मैं उस समय महज़ छह वर्ष की उम्र का था।
गीत अक्सर ही फिल्म रिलीज़ होने से बहुत पहले गूंजने लगते थे सो यह गीत भी बहुत पहले आ गया था। न तो मुझे इसके शब्दों का पूरा पता था और न ही इसके अर्थ मालुम होते थे। फिल्म का भी कुछ पता न था लेकिन इस एक पंक्ति का अर्थ मालूम था कि कोई किसी के आंसू पीने की बात कह रहा है। इस फिल्म ने उन दिनों 11 मिलियन भारतीय रूपये कमाए थे। उस समय में यह बहुत बड़ी रकम थी। उन दिनों मुझे उस कमाई का भी कुछ पता न चला। चल जाता तो शायद मैं भी उसी तरह की कमाई की बात सोचता। पता भी चला तो बस आंसूयों का। मुझे उस उम्र में भी बहुत से आंसू बहाने पड़े थे शायद उन आंसूयों ने ही यह समझ दे दी कि इस गीत के मुखड़े को समझ सकूं। आंसूओं का एक रिश्ता सा बन गया था इस गीत के साथ।
इस गीत के गीतकार रजिंदर कृष्ण दुग्गल गीत में छुपे दर्द के अहसास के कारण अपने अपने से लगने लगे। इसके साथ ही संगीतकार मदनमोहन साहिब के साथ भी एक दिल का रिश्ता स्थापित हुआ। मुझे अफ़सोस रहेगा कि इन दोनों से मैं अब तक नहीं मिल पाया। माला सिन्हा और तलत महमूद साहिब से भी भेंट नहीं हो सकी। निर्देशक थे विनोद कुमार और संगीत दिया था मदन मोहन साहिब ने।  मदन मोहन साहिब का 14 जुलाई 1975 को निधन हो गया और गीतकार रजिंदर कृष्ण 23 सितंबर 1987 को सिर्फ 68 वर्ष की उम्र में चल बसे। इन दोनों से कभी न मिल पाने के सदमे ने मुझे समझाया कि आर्थिक मजबूरियां कितना कुछ छीन लेती हैं। गीतकार जनाब राजेंद्र कृष्ण और इस सदा बहार गीत को आवाज़ देने वाले जनाब तलत महमूद साहिब के संयोजन ने इस गीत को भी अमर कर दिया। भारत भूषण, माला सिन्हा, शशि कला, पृथ्वी राज कपूर, ॐ प्रकाश, सुंदर अरुणा ईरानी, रणधीर, मीनू मुमताज़ और फरीदा जलाल जैसे मंजे हुए कलाकारों ने इस फिल्म में जान फूंक दी थी। उनकी आवाज़ में महसूस होता कंपन एक अजीब सा अहसास कराता है। गीत के शब्दों का दर्द उस कंपन के कारण शायद ज़्यादा महसूस होता है। यह कंपन ही उनकी आवाज़ को विलक्षण बनाता है। 
यहाँ पूरा गीत भी दिया जा रहा है। जब गीत की पहली पंक्ति कानों में पड़ती है या शब्दों में दिखाई देती है तो वह पहली पंक्ति ज़िंदगी की मजबूरियों को बहुत ही सादगी से प्रस्तुत करती है;सामने है। वह पहली पंक्ति कहती है:
तेरा ग़मख़्वार हूँ लेकिन मैं तुझ तक आ नहीं सकता----और दूसरी पंक्ति इसी शिद्द्त को आगे बढ़ाती है--मैं अपने नाम तेरी बेकसी लिखवा नहीं सकता---कितना अजीब सा अहसास है--कितनी सूक्ष्म सी पकड़ है। जब लोग ज़मीन जायदादों को अपने  नाम करवाने के इलावा और कुछ नहीं सोचते और इस मकसद के लिए कत्लोगार्त तक कर डालते हैं उस माहौल में भी कोई किसी की बेकसी अपने नाम लिखवाने की चाह में है। एक बार इस गीत की इस पंक्ति को मैंने अपने वाटसप पर लिख लिया। इसे देख कर एक महिला मित्र ने सवाल किया--किस के आंसू पीना चाहते हो? सवाल सुन कर बहुत अजीब भी लगा पर झट से कह दिया मैडम आपके आंसू? वह बोली सच? मैंने कहा हां  बिलकुल सच। मैं उसके कितने आंसू पी पाया और कितने नहीं यह एक अलग कहानी है। इसकी चर्चा कभी फिर सही। फ़िलहाल आप पढ़िए//देखिये और सुनिए देखिये इस गीत को जो आज भी मुझे से जुड़ा हुआ है। 
तेरा ग़मख़्वार हूँ लेकिन मैं तुझ तक आ नहीं सकता
मैं अपने नाम तेरी बेकसी लिखवा नहीं सकता

तेरी आँख के आँसू पी जाऊं ऐसी मेरी तक़दीर कहाँ 
तेरे ग़म में तुझको बहलाऊं ऐसी मेरी तक़दीर कहाँ

ऐ काश जो मिल कर रोते, कुछ दर्द तो हलके होते
बेकार न जाते आँसू, कुछ दाग़ जिगर के धोते
फिर रंज न होता इतना, है तनहाई में जितना
अब जाने ये रस्ता ग़म का, है और भी लम्बा कितना
हालात की उलझन सुलझाऊँ ऐसी मेरी तक़दीर कहाँ
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ-----
आपको यह ब्लॉग कैसा लगा? यह गीत और इसका संगीत कैसा लगा? इस गीत के साथ मेरे इस लगाव की बात कैसी लगी?  क्या आपको भी कभी किसी गीत के साथ ऐसा ही लगाव हुआ? हुआ तो अवश्य बताना। इंतज़ार रहेगी ही। अगली पोस्ट में मैं बता सकूंगा किसी ऐसे ही गीत के बारे में जिस को लेकर मुझे परिवार और बिरादरी में बहुत से सवाल भी हुए। इस गीत की चर्चा भी जल्दी ही। ---रेक्टर कथूरिया (पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें