शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

Death anniversary मिर्ज़ा ग़ालिब--जो आज भी अपनी शायरी में ज़िंदा हैं

ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर  और  जीते  रहते   यही   इंतेज़ार  होता

  
Courtesy:Ministry of Information & Broadcasting//YouTube
15-02-2014 पर प्रकाशित मिर्ज़ा ग़ालिब 
The 145th death anniversary of classical Urdu and Persian poet Mirza Asadullah Baig Khan Ghalib is being observed throughout country with tributes paid to his selfless contribution in the urdu literature.
Ghalib was born on December 27, 1796 in the city of Akbarabad (present Agra).
He was an all-time great classical Urdu and Persian poet.
He wrote several ghazals during his life, which have since been interpreted and sung in many different ways by different people.
कहूं किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बाला है
मुझे   क्या   बुरा   था   मरना ?  अगर  एक   बार  होता

विकिपीडिया के मुताबिक मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” (27 दिसंबर 1796–15 फरवरी 1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का भी श्रेय दिया जाता है । यद्दपि इससे पहले के वर्षो में मीर तक़ी मीर भी इसी वजह से जाने जाता है । ग़ालिब के लिखे पत्र, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है । उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला।
ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे । आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्जू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है । उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि दुनिया में बहुत से कवि-शायर ज़रूर हैं, लेकिन उनका लहजा सबसे निराला है:
“हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
ग़ालिब का जन्म आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था । उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन मे ही खो दिया था, ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मे सैन्य अधिकारी थे)। ग़ालिब की पृश्ठभूमि एक तुर्क परिवार से धी और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् 1750 के आसपास भारत आए थे । उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर मे काम किया और अन्ततः आगरा मे बस गये। उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके दो पुत्र थे।
मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग (गालिब के पिता) ने इज़्ज़त-उत-निसा बेगम से निकाह करने किया और अपने ससुर के घर मे रहने लगे। उन्होने पहले लखनऊ के नवाब और बाद मे हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम किया। 1803 में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय गालिब मात्र 5 वर्ष के थे।
जब ग़ालिब छोटे थे तो एक नव-मुस्लिम-वर्तित ईरान से दिल्ली आए थे और उनके सान्निध्य में रहकर ग़ालिब ने फ़ारसी सीखी। 
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना ग़र्क़-ए-दरिया
ना  कभी जनाज़ा  उठता, ना  कहीं  मज़ार होता

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