मुझे उन पलों की धुंधली सी याद भी नहीं है
Credit: ESO/Spitzer/NASA/JPL/S. Kraus |
सोशल मीडिया//लुधियाना: 12 मार्च 2020: (रेक्टर कथूरिया//पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी):: जन्म के अतीत में
ओशो ने इस संबंध में बहुत कुछ विस्तार से कहा है |
ख़ास ग्रुप |
जन्म का दिन कैसा था मुझे नहीं याद। उस समय दिन की रौशनी थी या रात्रि का अन्धेरा था मुझे यह भी नहीं मालूम। हवा रुकी हुई थी या चल रही थी यह भी नहीं पता। मौसम में ठंडक थी या गर्मी यह भी नहीं जान सका मैं। मुझे उन पलों की धुंधली सी याद भी नहीं है। शायद मुझे उस समय इतनी होश नहीं थी कि इसे देख या समझ पाता। जिनको यह सारी होश थी उनसे बहुत बार पूछा लेकिन उन सभी ने मेरे सवालों को हंस कर टाल दिया। उनकी नज़र में मेरे यह सभी सवाल फ़िज़ूल थे। हालांकि विश्व में ऐसे धर्म और ऐसी प्रजातियाँ हैं जो अतीत में जाने के प्रयास करती भी हैं और करवाती भी हैं लेकिन उनके सम्पर्क में भी बहुत कम लोग जा पाते हैं। बहुसंख्या तक यह पहुंच होनी भी नहीं चाहिए क्यूंकि ज़्यादातर लोगों को इसकी समझ भी नहीं आने वाली। मेरे यह सवाल मेरी नजर में महत्वपूर्ण थे। बिलकुल उसी तरह जैसे कैमरा क्लिक करने के वक्त हम रौशनी को देखते हैं। विपरीत दिशा से आ रही रौशनी सारी मेहनत बेकार कर देती है। अच्छी भली फोटो खराब हो जाती है। जब कुछ दशक पहले फोटो खींचने के लिए रील का प्रयोग होता था तो फोटो खींचने के बाद उसे धुलवाना पड़ता था। इस काम के लिए बाकायदा स्टुडियो का एक हिस्सा डार्क रूम हुआ करता था जहाँ रौशनी बहुत ही कम होती थी। जब फिल को धोया जाता था तो उस समय वह रौशनी भी बंद कर दी जाती थी। इसी प्रक्रिया पर निर्भर करती थी फोटो की क्वालिटी। अतीत में जाने की प्रक्रिया कुछ पता देती है हमारे जन्म के विज्ञान का। हम कहाँ चूक गए? हम क्या ले कर आये। अब जिंदगी भर हमारे साथ क्या रहने वाला है? जिन परिणामों के साथ हम बंध गए उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है? इसका एक विज्ञान है जिसके साथ निरंतर अन्याय हो रहा है। जो इसका अंधाधुंध विरोध है उनके हाथों भी और जो इसे समझने की बजाये अंधाधुध माने चले जा रहे हैं उनके हाथों भी। ओशो ने इस सम्बन्ध में भी बहुत कुछ कहा है जो अनमोल है। मुझे यह सब याद आया फेसबुक पर अपनी ही एक तस्वीर देख कर जिसे पोस्ट किया देविंदर बिमरा जी ने। मेरे जन्मदिन के मौके पर उन्होंने इस तस्वीर पर हैपी बर्थडे भी लिखा। इस ग्रुप में लेखकों को जन्मदिन मुबारक कहने का यह अनूठा अंदाज़ बहुत ही लोकप्रिय हुआ है। जन्मदिन की इसी बधाई के बहाने बहुत से लेखकों की तस्वीरें इसी एक मंच में एकत्र हो चुकी हैं जो अन्य लेखकों के लिए भी बहुत ही फायदेमंद हैं। ज़रूरत पड़े तो झट से तस्वीर हाज़िर।
रेक्टर कथूरिया |
इस तरह साहित्य पर सक्रिय मीडिया के लिए यह बहुत ही अच्छा ग्रुप है।हिंदी पंजाबी के लेखकों की तस्वीरें इसी ग्रुप में संग्रहित करने का मुश्किल काम करते हैं देविंदर बिमरा जी। इस मंच पर बहुत से लेखकों की तस्वीरें हैं जिनमें उन लेखकों का चेहरा होता ही है। उस चेहरे में एक झलक भी होती है जो उनकी ज़िंदगी का पता देती है। जो कुछ अक्सर हम छुपा लेते हैं उसका भी इशारा सा करती है। हमारी उपलब्धियों के साथ साथ हमारी बेबसियों और मजबूरियों का भी संकेत करती है। साकार हुए सपनों के साथ साथ टूट गए या अधूरे रह गए सपनों की भी बात करती हैं। अधूरी बात और प्यास का भी पता देती हैं। हमने जो जो नशा कहीं छुप कर किया होगा उसका भी पता देती है। अगर किसी को ठगने के प्रयास छुप कर भी तो उनका भी पता मिलता है। कुल मिला कर हमारा चेहरा सचमुच एक किताब ही तो होता है। यह बात अलग है उसे हर कोई न तो पढ़ सकता है और न ही पढ़ना चाहता है। हमारी तमाम कोशिशें, हमारे सभी प्रयास, हमारी सभी चालाकियां, हमारी हर बात उसमें नज़र आ ही जाती है। इसके साथ ही वह दर्द भी दिखने लगता है जिसे हमने अकेले में सहा। जिसका पता हमने किसी को भी न लगने दिया। बहुत तस्वीर में छुपा चेहरा। हम बहुत कुछ बदलना चाहते हैं; अपना भी और अपने मित्रों का भी लेकिन कर कुछ नहीं पाते। लेकिन हमें कोशिश तो करनी ही चाहिए। शायद सफलता मूल ही जाये। बहुत से लोगों को मिलती भी है।
हम अकेले शायद बहुत कुछ न भी बदल सकते हों लेकिन मिलजुल कर एक दुसरे के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। जिस दिन सांसों की डोर टूट जाएगी न किसी को हैपी बर्थडे कहा जा सकेगा न ही सुना जा सकेगा। जब तक सांस चलती है तब तक हम ऐसे अवसरों को मनाते रहें। शायद किसी को अपने पहले जन्मदिन का वह सब कुछ याद आ जाये जो उसे पता होता तो कितना अच्छा होता। कुल मिला कर यह एक अच्छा प्रयास है जिसमें हमें सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए।
-रेक्टर कथूरिया (पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)
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