शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

नहीं रही मेरी मां की मां-दोराहा हुआ बेगाना सा

 दोराहा का नाम लेते ही काटेगी गहरी उदासी
दोराहा (लुधियाना): 8 फरवरी 2020: (कार्तिका सिंह//पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)::
एक गीत मेरे जन्म से भी बहुत पहले लोकप्रिय हुआ करता था-
नानी  अम्मा नानी अम्मा मान जाओ। 
छोड़ो भी यह गुस्सा 
ज़रा हंस के दिखाओ-
नानी अम्मा नानी अम्मा जाओ। 
लेकिन मेरी मां की मां अर्थात मेरी नानी गोबिंद कौर आज मुझसे हमेशां के लिए रूठ गई। सुबह सुबह पांच बज कर 12 मिनट पर मेरी नानी अम्मा की तबीयत कुछ बिगड़ी और सुबह सुबह 5:30 पर उसने हमेशां के लिए अलविदा कह दी। मौत उनको छीन के लेजा चुकी थी। अनहोनी हो चुकी थी। हम सभी भी दोराहा पहुंचे। उसी घर में जहां से कभी मेरी मां ने शादी के बाद का नया जीवन शुरू करने के लिए विदा ली थी। नानी ने उसे दुल्हन के लिबास में विदा किया था। फिर अचानक 10 जुलाई 2013 को मेरी मां कल्याण कौर सुबह सुबह करीब 3:30 बजे मुझे और मेरी बहन शीबा को हमेशां के लिए छोड़ गई। सुबह सुबह जब लोग भगवान की साधना तपस्या करते  हैं उस समय उसकी तबियत कुछ घबराई थी। उस ने मुझ से पानी ले कर दो घूंट पानी पिया और लेट गईं लेकिन हमेशां की नींद। मुझे यूं लगा था जैसे हम दोनों बहनों के हाथों से हमारा सारा संसार अचानक इतनी गहरी खामोशी से छिन  गया। मौत का मूक और भयावह चेहरा हमने पहली बार इतनी निकटता से देखा था। पापा भी उस समय लैपटॉप पर अपना काम कर रहे थे। हम में से कोई कुछ नहीं कर पाया। हम लुटे लुटे से सब देखते रह गए। उस असहनीय दर्द के समय नानी ने हमें बहुत हौंसला दिया। जब भी मन उदास होता हम दोराहा नानी के घर चले जाते। कुछ देर वहां रह कर ऐसे लगता जैसे मां से मुलाकात हो गई। हम खुश हो कर घर लौट आते। नानी का घर खुशी का घर बन गया था। मां से मुलाकात कराने वाला जादू का घर। आज उसी घर में नानी की मृत देह रखी थी। उदासी का माहौल। मासियां मामियां सब रो रहीं थीं। सब की तरह मैंने भी चादर हटा कर नानी का चेहरा देखा। यूँ लग रहा था जैसे नानी किसी गहरी नींद या गहरी समाधी में हो। दो चार आवाज़ें भी दी लेकिन नानी नहीं बोली। मैंने उस कमरे से बाहर आ कर देखा। आस पड़ोस के लोगों और रिश्तेदारों की भीड़ लगी थी। घर का एक एक कोना मुझे याद दिला रहा था यहां नानी हमें देसी घी के परांठे खिलाया करती थी। इस दीवार की तरफ नानी हमारे लिए खीर बनाया करती थी। उस कोने में नानी अचार से भरा बड़ा सा मर्तबान हमें घर के लिए बांध दिया करती थी। उन दीवारों को देख कर बहुत कुछ याद आया। कभी लगता बस इधर से आएंगे बीजी और कहेंगे कम से कम दो परांठे और खाओ। कभी लगता बीजी अभी अभी कमरे से निकलेंगे और कहेंगे खीर कम क्यों डाली पूरी प्लेट भर कर खाओ। लेकिन किसी न किसी के रोने पर हर बार कल्पना टूट जाती। बार बार हकीकत का भान होता कि अब बीजी कभी नहीं आएंगे। कालेज की पढ़ाई और मां के बिन घर चलाना आसान नहीं होता।  इसलिए मैं चाह कर भी काफी समय से नानी के पास नहीं जा पायी। आज जब चिता जल रही थी  अग्नि में से बीजी का चेहरा नज़र आने लगा। आवाज़ भी सुनाई देती महसूस हुई जैसे कह रहे हों अब आई हो! कुछ पहले आ जाती! 
अफ़सोस हम उस देश में हैं जहां ज़िंदगी के झमेले हमें वक़्त रहते एक दुसरे से मिलने भी नहीं देते। जैसे रोज़ी रोटी के लिए विदेशों में गए लोग भी किस न किसी का देहांत होने के समय अपने बज़ुर्गों के पास नहीं होते उसी तरह हम स्वदेश में रह कर भी छोटे छोटे झमेलों में उलझे रहते हैं। जब तक निकल पाते हैं तब तक बहुत देर हो  चुकी होती है जैसे कि मुझे हो गई। अभी तीन दिन पहले उनसे वीडीओ कॉलिंग पर बात हुई।  वह कमज़ोर तो दिख रहे थे लेकिन ऐसा तो नहीं लगता था कि वह हमेशां  के लिए चले जायेंगे। 
वास्तव में दुःखों का दीमक उन्हें भी बहुत पहले लग चूका था। इसका गम--उसका गम न जाने कितने गम। शायद यही हमारी सभी की नियति बन गई है। हम सभी के साथ भी यही होता है या फिर होने वाला होता है। पूरे परिवार को संभालने और बच्चों को सैट करने में उन्होंने लगातार संघर्ष किया। सभी बच्चों के शादी विवाह और पढ़ाई लिखाई कोई आसान काम नहीं था। उन्होंने उस समय में बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाई जब ज़माने की हवा बेटियों को पढ़ाने के खिलाफ चल रही थी। पूरे समाज के साथ टक्कर ले कर उन्होंने समाज के नव निर्माण में योगदान दिया। मुझे मेरी मां अपनी मां अर्थात मेरी नानी की बहुत सी बातें बताया करती थी। आज वह सभी बातें एक एक करके याद आ रही हैं लेकिन नानी के जाने बाद। काश यह सब पहले याद आ जाता। उनके होते होते याद आ जाता। मौत हमें कितना बेबस कर देती है और न जाने कितना कुछ याद भी दिला देती है। वही आज हम सभी के साथ भी हो रहा है।  
अंत में नानी मां को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए सन 1966 में आई फिल्म दादी मां का लोकप्रिय गीत सुनिए, देखिये और पढ़िए जिसे लिखा था जनाब मजरूह सुल्तानपुरी साहिब ने और संगीत से सजाया था रौशन जी ने। इस यादगारी गीत के लिए आवाज़ें थीं महेंद्र कपूर, मन्ना डे और ऊषा मंगेशकर जी ने। 
उसको नहीं देखा हमने कभी
पर इसकी ज़रुरत क्या होगी
ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग
भगवान की सूरत क्या होगी, क्या होगी
उसको नहीं देखा हमने कभी

इनसान तो क्या देवता भी
आँचल में पले तेरे
है स्वर्ग इसी दुनिया में
क़दमों के तले तेरे
ममता ही लुटाये जिसके नयन
ऐसी कोई मूरत क्या होगी
ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत...

क्यों धूप जलाए दुखों की
क्यों गम की घटा बरसे
ये हाथ दुआओं वाले
रहते हैं सदा सर पे
तू है तो अँधेरे पथ में हमें
सूरज की ज़रुरत क्या होगी
ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत...

कहते हैं तेरी शान में जो
कोई ऊँचे बोल नहीं
भगवान के पास भी माता
तेरे प्यार का मोल नहीं
हम तो यही जानें तुझसे बड़ी
संसार की दौलत क्या होगी
ऐ माँ, ऐ माँ तेरी सूरत  से अलग भगवान की सूरत क्या होगी--क्या होगी!
अभी कुछ लिखा नहीं जा रहा। वक़्त गुज़रने के साथ शायद इस सदमे को सहने की कुछ शक्ति मिले। अगली पोस्ट में मां के संघर्षों की चर्चा भी होगी और नानी के संघर्षों की भी। इस लिए नहीं कि वह मेरी मां और नानी हैं बल्कि इसलिए कि समाज को बदलने के लिए भी उन्होंने काफी कुछ किया। आज भी समाज को ऐसी महिलाओं  की सख्त  ज़रूरत है जो बदलाव के काम में योगदान दे सकें।  सह प्रयास--कार्तिका सिंह//शीबा सिंह 

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