राम पुनियानी 28 अक्टूबर 2020
Lyon France में पुलिस की मौजूदगी-फाईल फोटो जिसे क्लिक किया Ev (Unsplash) ने |
रूसी मूल के 18 साल के मुस्लिम किशोर द्वारा फ्रांस के स्कूल शिक्षक सेम्युअल पेटी की हत्या ने एक अंतर्राष्ट्रीय विवाद को जन्म दे दिया है। एक ओर फ्रांस के राष्ट्रपति ने मृत शिक्षक का समर्थन करते हुए राजनैतिक इस्लाम का मुकाबला करने की घोषणा की है तो दूसरी ओर, तुर्की के राष्ट्रपति एर्डोगन ने फ्रांस के राष्ट्रपति के बारे में अत्यधिक अपमानजनक टिप्पणी की है। प्रतिक्रिया स्वरूप, फ्रांस ने तुर्की से अपने राजदूत को वापिस बुलवा लिया है। इस दरम्यान अनेक मुस्लिम देशों ने फ्रांस के उत्पादों का बहिष्कार प्रारंभ कर दिया है। इसके साथ ही अनेक मुस्लिम देशों ने फ्रांस के राष्ट्रपति के विरूद्ध अपना आक्रोश व्यक्त किया है। पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत अनेक मुस्लिम देशों में विरोध प्रकट करने के लिए लोग सड़कों पर भी उतरे।
लेखक डा. राम पुनियानी |
इसके नतीजे में पिछले कुछ दशकों से अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच, विशेषकर पश्चिम एशिया, पर आतंकवाद छाया हुआ है. मुसलमानों में अतिवाद दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. इस बीच अनेक देशों ने ईशनिंदा कानून बनाए और कुछ मुस्लिम देशों ने ईशनिंदा के लिए मृत्युदंड तक का प्रावधान किया. इन देशों में पाकिस्तान, सोमालिया, अफगानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब और नाईजीरिया शामिल हैं.
हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक के शासनकाल में ईशनिंदा के लिए सजा-ए-मौत का प्रावधान किया गया था. इसके साथ ही वहां इस्लामीकरण की प्रवृत्तियां भी तेज हो गईं. इसका एक नतीजा यह हुआ कि इन देशों में इस्लाम का अतिवादी संस्करण लोकप्रिय होने लगा. इसका जीता-जागता उदाहरण आसिया बीबी हैं जिन्हें ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था. पाकिस्तानी पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर की निर्मम हत्या कर दी गई क्योंकि उन्होंने न सिर्फ इस कानून का विरोध किया वरन् जेल जाकर आसिया बीबी से मुलाकात भी की. इसके बाद तासीर के हत्यारे का एक नायक के समान अभिनंदन किया गया.
इस्लाम के इतिहासकार बताते हैं कि पैगम्बर मोहम्मद के दो सौ साल बाद तक इस्लाम में ईशनिंदा संबंधी कोई कानून नहीं था. यह कानून नौवीं शताब्दि में अबासिद शासनकाल में पहली बार बना. इसका मुख्य उद्देश्य सत्ताधारियों की सत्ता पर पकड़ मजबूत करना था. इसी तरह, पाकिस्तान में जिया उल हक ने अपने फौजी शासन को पुख्ता करने के लिए यह कानून लागू किया. इसका लक्ष्य इस्लामी राष्ट्र के बहाने अपनी सत्ता को वैधता प्रदान करना था. सच पूछा जाए तो फौजी तानाशाह, समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते थे. इसके साथ ही गैर-मुसलमानों और उन मुसलमानों, जो सत्ताधारियों से असहमत थे, को काफिर घोषित कर उनकी जान लेने का सिलसिला शुरू हो गया. पाकिस्तान में अहमदिया और शिया मुसलमानों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. ईसाई और हिन्दू तो इस कानून के निशाने पर रहते ही हैं.
अभी हाल में (25 अक्टूबर) एक विचारोत्तेजक वेबिनार का आयोजन किया गया. इसका आयोजन मुस्लिम्स फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी नामक संस्था ने किया था. वेबिनार में बोलते हुए इस्लामिक विद्वान जीनत शौकत अली ने कुरान के अनेक उद्वरण देते हुए यह दावा किया कि पवित्र ग्रंथ में इस्लाम में विश्वास न करने वालों के विरूद्ध हिंसा करने की बात कहीं नहीं कही गई है (कुरान में कहा गया है ‘तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए, मेरा दीन मेरे लिए’). वेबिनार का संचालन करते हुए जावेद आनंद ने कहा कि ‘‘हम इस अवसर पर स्पष्ट शब्दों में, बिना किंतु-परंतु के, न केवल उनकी निंदा करते हैं जो इस बर्बर हत्या के लिए जिम्मेदार हैं वरन् उनकी भी जो इस तरह के अपराधों को प्रोत्साहन देते हैं और उन्हें उचित बताते हैं. हम श्री पेटी की हत्या की निंदा करते हैं और साथ ही यह मांग करते हैं कि दुनिया में जहां भी ईशनिंदा संबंधी कानून हैं वहां उन्हें सदा के लिए समाप्त किया जाए’’.
इस वेबिनार में जो कुछ कहा गया वह महान चिंतक असगर अली इंजीनियर की इस्लाम की विवेचना के अनुरूप है. असगर अली कहते थे कि पैगम्बर इस हद तक आध्यात्मिक थे कि वे उन्हें भी दंडित करने के विरोधी थे जो व्यक्तिगत रूप से उनका अपमान करते थे. इंजीनियर, पैगम्बर के जीवन की एक मार्मिक घटना का अक्सर उल्लेख करते थे. पैगम्बर जिस रास्ते से निकलते थे उस पर एक वृद्ध महिला उन पर कचरा फेंकती थी. एक दिन वह महिला उन्हें नजर नहीं आई. इस पर पैगम्बर तुरंत उसका हालचाल जानने उसके घर गए. यह देखकर वह महिला बहुत शर्मिंदा हुई और उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया.
यहां यह समझना जरूरी है कि आज के समय में इस्लाम पर असहिष्णु प्रवृत्तियां क्यों हावी हो रही हैं? इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब मुस्लिम शासकों ने इन प्रवृत्तियों का उपयोग सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए किया. वर्तमान में इस प्रवृत्ति में नए आयाम जुड़ गए हैं. सन् 1953 में ईरान में चुनी हुई मोसादिक सरकार को इसलिए उखाड़ फेंका गया क्योंकि वह तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करने वाली थी. यह सर्वविदित है कि इन कंपनियों से अमेरिका और ब्रिटेन के हित जुड़े हुए थे. समय के साथ इसके नतीजे में कट्टरपंथी अयातुल्लाह खौमेनी ने सत्ता पर कब्जा कर लिया. वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जे के बाद अमेरिका ने कट्टरवादी इस्लामिक समूहों को प्रोत्साहन दिया. इसके साथ ही मुजाहिदीन, तालिबान और अलकायदा से जुड़े आतंकवादियों को प्रशिक्षण देना भी प्रारंभ किया. नतीजे में पश्चिमी एशिया में अमेरिका की दखल बढ़ती गई जिसके चलते अफगानिस्तान, ईराक आदि पर हमले हुए और असहनशील तत्व हावी होते गए जिसके चलते पेटी की हत्या जैसी घटनाएं होने लगीं.
ईशनिंदा एवं ‘काफिर का कत्ल करो’ जैसी प्रवृत्तियों को कैसे समाप्त किया जाए, इस पर बहस और चर्चा आज के समय की आवश्यकता है.
(हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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