रविवार, 21 मार्च 2021

क्या धर्मनिरपेक्षता भारत की परंपराओं के लिए खतरा है?

Sunday: 21st  March 2021 at 10:40 AM

 17 मार्च, 2021//राम पुनियानी


नई दिल्ली
//भोपाल: 21st March 2021: (राम पुनियानी//पंजाब स्क्रीन ब्लॉग टीवी)::

Pexels Photo by Lucky Trips

भारत को एक लंबे संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश राज से मुक्ति मिली. यह संघर्ष समावेशी और बहुवादी था. जिस संविधान को आजादी के बाद हमने अपनाया, उसका आधार थे स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के वैश्विक मूल्य. धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान की मूल आत्मा है और इसके संदर्भ में अनुच्छेद 14, 19, 22 और 25 में प्रावधान किए गए हैं. हमारा संविधान देश के सभी नागरिकों को अपने धर्म में आस्था रखने, उसका आचरण करने और उसका प्रचार करने की अबाध स्वतंत्रता देता है.

जब हम स्वाधीन हुए तब भी देश का संपूर्ण नेतृत्व विविधता का सम्मान करने वाले बहुवादी मूल्यों का हामी नहीं था. साम्प्रदायिक तत्वों ने संविधान लागू होते ही उस पर तीखा हमला बोला. उनका कहना था कि हमारा संविधान भारत के गौरवशाली अतीत और उसके मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करता. ये मूल्य वे थे जो मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में व्याख्यायित किए गए थे. साम्प्रदायिक तत्वों को हमारा संविधान ही नहीं बल्कि देश का तिरंगा झंडा भी पसंद नहीं था. आज स्वाधीनता के सात दशक बाद वे ही तत्व एक बार फिर अपना सिर उठा रहे हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने भारतीय संविधान और उसमें निहित मूल्यों का विरोध किया था.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे शीर्ष नेता एक ओर तो कहते हैं कि वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं. दूसरी ओर चुनावी गणित को ध्यान में रखते हुए वे यह भी कहते हैं कि, "हम धर्मनिरपेक्ष हैं - इसलिए नहीं क्योंकि हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया है, बल्कि इसलिए क्योंकि धर्मनिरपेक्षता हमारे खून में है. हम वसुधैव कुटुम्कम् के आदर्श में विश्वास रखते हैं."

दूसरे छोर पर योगी आदित्यनाथ जैसे नेता हैं जो धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना के प्रति अपनी वितृष्णा को छिपाने का तनिक भी प्रयास नहीं करते हैं. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने हाल में कहा कि धर्मनिरपेक्षता हमारे देश की परंपराओं को विश्व मंच पर मान्यता मिलने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. पूर्व में एक अन्य मौके पर उन्होंने कहा था कि 'सेक्युलर' शब्द सबसे बड़ा झूठ है और यह मांग की थी कि जिन लोगों ने इस झूठ का प्रचार-प्रसार किया है उन्हें माफी मांगनी चाहिए. उनका आशय कांग्रेस से था.

आदित्यनाथ ने विधायक और फिर मंत्री के तौर पर भारतीय संविधान के नाम पर शपथ ली है. इसके बाद भी उन्हें इस संविधान के मूलभूत मूल्यों को नकारने में कोई संकोच नहीं होता. वे गोरखनाथ मठ के महंत हैं और अपनी पार्टी के कुछ अन्य नेताओं की तरह हमेशा भगवा वस्त्रों में रहते हैं.

आईए हम देखें कि धर्मनिरपेक्षता भला किस तरह भारतीय परंपराओं के लिए खतरा है. भारत हमेशा से एक बहुवादी देश रहा है. यहां धार्मिक परंपराओं, भाषाओं, नस्लों, खानपान की आदतों, वेशभूषा, पूजा पद्धतियों आदि में समृद्ध विविधता है. जिस हिन्दू धर्म के नाम पर योगी आदित्यनाथ धर्मनिरपेक्षता पर निशाना साध रहे हैं वह स्वयं विविधताओं से परिपूर्ण है. हिन्दू धर्म में ऊँच-नीच पर आधारित ब्राम्हणवादी परंपराएं हैं तो समतावादी भक्ति परंपरा भी है. क्या यह विविधता वैश्विक मंच पर भारत को स्वीकार्यता और मान्यता दिलवाने में बाधक बनी है?

दुनिया के विकास में भारत के योगदान को कहां स्वीकृति नहीं मिली? दुनिया का एक बड़ा हिस्सा बुद्ध के दर्शन से प्रभावित है. स्वाधीनता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी विश्व पटल पर एक महामानव की तरह उभरे और उन्होंने पूरी दुनिया को भारतीय परंपरा पर आधारित अहिंसा और सत्याग्रह के मूल्यों का अमूल्य उपहार दिया. उनके विचारों ने दुनिया के अनेक शीर्ष नेताओं को प्रभावित किया जिनमें मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला शामिल थे. इन दोनों नेताओं ने महात्मा गांधी की विचारधारा को अपने संघर्ष का आधार बनाया. भारतीय दर्शन और विचारों ने अन्य अनेक तरीकों से पूरी दुनिया को प्रभावित किया.

वैसे हमें यह भी समझना होगा कि पूरी दुनिया में अलग-अलग संस्कृतियां हैं और वे सब एक-दूसरे से अपने विचार, ज्ञान और दर्शन को सांझा करती आई हैं. भारत ने गणित और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में जो उपलब्धियां हासिल कीं वे आज वैश्विक ज्ञान संपदा का हिस्सा हैं. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पूरी दुनिया को गुटनिरपेक्षता की अनूठी परिकल्पना दी जिसे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के कई राष्ट्रों ने स्वीकार किया और अपनाया.

आदित्यनाथ जो कह रहे हैं उसके ठीक विपरीत सच यह है कि धर्मनिरपेक्षता का पथ अपनाने के कारण ही भारतीय गणतंत्र अपने शुरूआती पांच-छःह दशकों में औद्योगिकरण, शिक्षा, सिंचाई, परमाणु ऊर्जा व अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में चमत्कारिक प्रगति कर सका. पिछले कुछ दशकों में धर्मनिरपेक्षता के कमजोर पड़ते जाने के साथ ही हमारी प्रगति की गति भी थम गई. अब तो हमारा सत्ताधारी दल इस बात की खुशियां मना रहा है कि पिछले चुनाव में किसी भी पार्टी की 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द का इस्तेमाल करने तक  की हिम्मत नहीं हुई.

यह भी कहा जाता है कि धर्मनिरपेक्षता शब्द को सन् 1976 में अकारण हमारे संविधान का हिस्सा बनाया गया था और इसलिए उसे संविधान से हटा दिया जाना चाहिए. सच तो यह है कि हमारे संविधान की रग-रग में धर्मनिरपेक्षता समाई है और इसे कोई हटा नहीं सकता. धर्मनिरपेक्षता का एक अर्थ तो यह है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा. इसका दूसरा अर्थ यह है कि राज्य सभी धर्मों का सम्मान करेगा परंतु कोई धर्म उसका मार्गदर्शक नहीं होगा. धर्मनिरपेक्षता का तीसरा पक्ष यह है कि धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को पूरा सम्मान और सुरक्षा दी जाएगी और उनके विकास और कल्याण के लिए राज्य सकारात्मक भेदभाव कर सकेगा. इस सकारात्मक भेदभाव को आज मुसलमानों का तुष्टिकरण बताया जा रहा है और इसके नाम पर बहुसंख्यक समुदाय को गोलबंद करने के प्रयास हो रहे हैं.    

आदित्यनाथ धर्मनिरपेक्षता, बहुवाद और विविधिता के मूल्यों के विरोधी हैं. वे हिन्दू राष्ट्र के समर्थक हैं. ऐसी सोच रखने वाले वे अपनी पार्टी के एकमात्र सदस्य नहीं हैं. बल्कि शायद उनकी तरह सोचने वालों का उनकी पार्टी में बहुमत है. केन्द्रीय मंत्री अनंत हेगड़े ने खुलकर कहा था कि भाजपा संविधान को बदलना चाहती है. पूर्व सरसंघचालक के. सुदर्शन का कहना था कि भारतीय संविधान पश्चिमी मूल्यों पर आधारित है और हमारे देश के लिए उपयुक्त नहीं है. उनके अनुसार भारत को अपने पवित्र ग्रंथों पर आधारित एक नया संविधान बनाना चाहिए.

पूरी दुनिया में धार्मिक राष्ट्रवादी धर्मनिरेक्ष-बहुवादी मूल्यों के विरोधी होते हैं क्योंकि ये मूल्य उन्हें मनमानी नहीं करने देते. इनके चलते वे अपने मूल्यों और अपनी सोच को पूरे समाज पर लाद नहीं पाते. वे ऊँचनीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण नहीं कर पाते - उस सामाजिक व्यवस्था का जिसकी पैरवी मनुस्मृति जैसी पुस्तकें करती हैं. चाहे वे हिन्दू राष्ट्रवादी हों या तालिबानी, चाहे वह मुस्लिम ब्रदरहुड हो या श्रीलंका और म्यामांर में बौद्ध धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले. इन सभी का आदर्श है वर्ग, नस्ल, धर्म, जाति, लिंग आदि पर आधारित पूर्व-आधुनिक व्यवस्था, जिसमें हर व्यक्ति का स्थान उसके जन्म से निर्धारित होता हो. अर्थात कौन किसके ऊपर होगा और कौन किसके नीचे यह सब पहले से तय होता है.

पाकिस्तान में साम्प्रदायिक तत्वों का बोलबाला रहा है. हम सब यह देख सकते हैं कि उस देश के क्या हाल बने हैं. न तो इस्लाम उसे एक रख सका और ना ही वह विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगिकरण आदि किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर सका है.

अगर हमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पोषण के क्षेत्रों में उन्नति करनी है तो हमें साम्प्रदायिक सोच से मुक्ति पानी ही होगी. अन्यथा हम केवल मंदिर-मस्जिद के झगड़ों और राज्य के व्यय पर धार्मिक त्यौहार मनाने में अपना समय और ऊर्जा व्यय करते रहेंगे. (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

गुरुवार, 18 मार्च 2021

कोविड ने बच्चों और महिलाओं के जीवन में भी की है भयानक तबाही

दक्षिण एशिया: महामारी के कारण जच्चा-बच्चा मौतों में तीव्र बढ़ोत्तरी


17 मार्च 2021//महिलाएं

आपदा कहीं भी आये उसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है महिलाओं पर। इसके साथ ही  बच्चों की। आज  युग की खबरें भी कुछ इसी तरह की आ रही हैं। कोविड  तबाही की दर वाली है। संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों ने कहा है कि दक्षिण एशिया में, कोविड-19 के कारण, स्वास्थ्य सेवाओं में उत्पन्न हुए गम्भीर व्यवधान के परिणामस्वरूप, वर्ष 2020 के दौरान, जच्चा-बच्चा की अतिरिक्त दो लाख 39 हज़ार मौतें हुई हैं। यह आंकड़ा सचमुच चिंतित करने वाला है। संयुक्त राष्ट्र समाचार की टीम के सदस्य इसकी विस्तृत तस्वीर सामने लाये हैं और यह तस्वीर बेहद दुखद है। बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है। 

UNICEF/Omid Fazel: अफ़ग़ानिस्तान के हेरात प्रान्त में, आन्तरिक विस्थापितों के लिये बनाए गए एक शिविर में, सामुदायिक शिक्षा केन्द्र में कुछ बच्चे

यह तस्वीर डराने वाली है। पूरे समाज को जागना होगा और सक्रिय भूमिका।  संयुक्त राष्ट्र बाल कोष–यूनीसेफ़, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) ने द्वारा बुधवार को जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस व्यवधान के परिणामस्वरूप, गम्भीर व तात्कालिक कुपोषण का इलाज पाने वालों, व बचपन में टीकाकरण किये जाने वाले बच्चों की संख्या में भी काफ़ी कमी हुई है।  इस तरह न जाने कितने बच्चे और कितने परिवार आवश्यक सेवा और सुविधा से वंचित रह रहे हैं। 

UNICEF-WHO-UNFPA report: दक्षिण एशिया में, बच्चों और माताओं पर कोविड-19 महामारी के प्रभाव की एक झलक


पूरे विश्व के जागरूक लोग इस समस्या को ले कर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे हैं। दक्षिण एशिया के लिये यूनीसेफ़ के क्षेत्रीय निदेशक ज्यॉर्ज लरयी-ऐडजेई के अनुसार इन महत्वपूर्ण व आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं में व्यवधान उत्पन्न होने के कारण, निर्धनतम व बहुत कमज़ोर हालात का सामना कर रहे परिवारों के स्वास्थ्य व पोषण पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। इस वक्तव्य से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस विनाशकारी प्रभाव के दुष्परिणाम निकट भविष्य में भी दिखाई देंगें और साथ ही देर तक इनकी आहत करने वाली आहट सुनाई देती रहेगी। 

क्षेत्रीय निदेशक ज्यॉर्ज लरयी-ऐडजेई ने ज़ोर देकर कहा, “इन स्वास्थ्य सेवाओं को पूरी तरह बहाल किया जाना बेहद आवश्यक है ताकि उन बच्चों व माताओं को इनका लाभ मिल सके, जिन्हें इनकी बेहद ज़रूरत है।"

"साथ ही, वो सब कुछ किया जाना सुनिश्चित करना होगा जिसके ज़रिये, लोग इन सेवाओं का इस्तेमाल करने में सुरक्षित महसूस करें।”

रिपोर्ट में कहा गया है कि इस महामारी के कारण, दक्षिण एशिया क्षेत्र में भी बेरोज़गारी, निर्धनता और खाद्य असुरक्षा में बढ़ोत्तरी हुई है, जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में भी गिरावट आई है। 

स्कूल वापसी की सम्भावना कम

महामारी की विकरालता का प्रभाव शिक्षा पर भी पड़ा है। इस रिपोर्ट में अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका के हालात का जायज़ा लिया गया है। पाया गया है कि महामारी और उससे निपटने के लिये लागू किये गए उपायों के कारण, इन देशों में लगभग 42 करोड़ बच्चे स्कूलों से बाहर रह गए। करोड़ों बच्चों की शिक्षा से दूरी  निर्माण करेगी इसका अनुमान भी लगाया जा सकता है। 

इस संबंध में सामने आई रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसी सम्भावना है कि लगभग 45 लाख लड़कियाँ, अब कभी भी स्कूली शिक्षा में वापिस नहीं लौट पाएंगी। इसके अलावा, ये लडकियाँ, यौन व प्रजनन स्वास्थ्य और सूचना प्रदान करने वाली सेवाओं तक पहुँच नहीं होने के कारण, जोखिम के दायरे में हैं। इस जोखिम का परिणाम  भुगतना पड़ सकता है। कोविड का कहर 

एशिया-प्रशान्त के लिये, यूएन जनसंख्या कोष के क्षेत्रीय निदेशक ब्यॉर्न एण्डर्सन का कहना है, “दक्षिण एशिया में सांस्कृतिक व सामाजिक परिदृश्य को देखते हुए, इन सेवाओं में व्यवधान आने से, विषमताएँ और ज़्यादा गहरी हो रही हैं और इसके परिणामस्वरूप, जच्चा-बच्चा की मृत्यु दर में और भी बढ़ोत्तरी होने की सम्भावना है।”